ये ज़िंदगी,
अपनी तो नहीं.
जो हम चाहें,
हर-वक़्त मिलता ऩही...
कुछ बिखरे सपने यहाँ,
कुछ टूटे ख्वाबोंके निशान;
इस जिंदगी के खेल में,
अब-तक कोई जीता कहाँ????
आँधियोंमे चल रहा,
मैं अकेला था यहाँ;
इन यादोंकी ज़ंजीरोंमे;
बँधा हुआ,बरबाद था...
जो मैं हूँ अब गुमशुदा,
ये जहाँ ना मेरा रहा;
सूखे पत्तोंकी तरह,
मुरझा हुआ था मैं सदा.....
हार और जीत का,
एक नाम है ज़िंदगी,
जबसे मैने ये जाना,
मैं तबसे हारा नहीं....
मेरे बिखरे सपनोंमे भी,
मैं ढूंढता चला अपनी राह;
हर हारको आकार दे,
मैं जीत को पाता गया....
अब आँधियोंका डर नही,
ना हार का,ना जीत का;
उन यादोंकी ज़ंजीरोंको,
मैंने अब ठुकरा दिया..
ना रहूँ मैं गुमशुदा,
ना रहूँ अब बेगाना;
हर हार और हर जीत को,
जीता चला,गाता चला......